Gurucharitra adhyay 14 Marathi – गुरुचरित्र अध्याय 14 pdf

Gurucharitra adhyay 14: यह पर हम आपको  gurucharitra adhyay 14 के बारे में पूरी जानकारी देंगे कि कैसे गुरु नृसिंह सरस्वती ने अपने अनुनायी सन्यदेव को एक बहुत बुरी श्थिति से बचाया।  सायनदेव को राजा के द्वारा बुलाया गया था और लोगो का ये मानना था की राजा जिसे भी बुलाता हे तो उसकी मुर्त्यु निश्चित हे क्युकी वह का राजा बहुत ही निर्दयी था। अपनी मुर्त्यु के बारे में पता चलने के बाद उन्होंने अपने गुरु नृसिंह सरस्वती से सलाह मांगी  कि उसके निधन के बाद भी उसके परिवार पर आपका आश्रीवाद बना रहे और आपकी भगति चलती रहे।  

लेकिन गुरु गुरु नृसिंह सरस्वती ने उसे समजाया की राजा उसे मारने नहीं बल्कि उसका समान करने और उसे कई तोहफे देने जा रहा हे और कहा की तुम्हारे वापिस आने तक में तुम्हारा यही पर इंतजार करूंगा। सन्यदेव के महल में जाने के बाद राजा उस पर बहुत की क्रोदित और गुसा था और उसे मारने के लिए जब वह हथियार लेने गया तब उसे वह नींद आ गयी और सपना आया की उसे कोई मार रहे हे। 

और जब वह उठा तब उसे बहुत दर्द हो रहा था तब वह बहार आया और सन्यदेव से माफ़ी मांगी।  और सन्यदेव को कई तोहफे , पैसे और कपड़े दिए।  सन्यदेव फिर अपने गुरु के पास चले गए।  gurucharitra adhyay 14 का पाठ सदैव भक्तों द्वारा किसी भी भयंकर कठिनाई को दूर करने के लिए किया जाता है। कई लोगों ने अपने जीवन में भयानक कठिनाइयों का सफलतापूर्वक सामना किया है और  gurucharitra adhyay 14 अध्याय को पढ़ कर अपने जीवन में सुख और शांति प्राप्त की हे ।

Gurucharitra 14 va adhyay 

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ श्रीसरस्वत्यै नमः ॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥
 
नामधारक शिष्य देखा । विनवी सिद्धासी कवतुका ।
प्रश्न करी अतिविशेखा । एकचित्तें परियेसा ॥१॥
 
जय जया योगीश्वरा । सिद्धमूर्ति ज्ञानसागरा ।
पुढील चरित्र विस्तारा । ज्ञान होय आम्हांसी ॥२॥
 
उदरव्यथेच्या ब्राह्मणासी । प्रसन्न जाहले कृपेसीं ।
पुढें कथा वर्तली कैसी । विस्तारावें आम्हांप्रति ॥३॥
 
ऐकोनि शिष्याचें वचन । संतोष करी सिद्ध आपण ।
गुरुचरित्र कामधेनु जाण । सांगता जाहला विस्तारें ॥४॥
 
ऐक शिष्या शिखामणि । भिक्षा केली ज्याचे भुवनीं ।
तयावरी संतोषोनि । प्रसन्न जाहले परियेसा ॥५॥
 
गुरुभक्तीचा प्रकारु । पूर्ण जाणे तो द्विजवरु ।
पूजा केली विचित्रु । म्हणोनि आनंद परियेसा ॥६॥
 
तया सायंदेव द्विजासी । श्रीगुरु बोलती संतोषीं ।
भक्त हो रे वंशोवंशीं । माझी प्रीति तुजवरी ॥७॥
 
ऐकोनि श्रीगुरुचें वचन । सायंदेव विप्र करी नमन ।
माथा ठेवून चरणीं । न्यासिता झाला पुनःपुन्हा ॥८॥
 
जय जया जगद्गुरु । त्रयमूर्तीचा अवतारू ।
अविद्यामाया दिससी नरु । वेदां अगोचर तुझी महिमा ॥९॥
 
विश्वव्यापक तूंचि होसी । ब्रह्मा-विष्णु-व्योमकेशी ।
धरिला वेष तूं मानुषी । भक्तजन तारावया ॥१०॥
 
तुझी महिमा वर्णावयासी । शक्ति कैंची आम्हांसी ।
मागेन एक आतां तुम्हांसी । तें कृपा करणें गुरुमूर्ति ॥११॥
 
माझे वंशपारंपरीं । भक्ति द्यावी निर्धारीं ।
इह सौख्य पुत्रपौत्रीं । उपरी द्यावी सद्गति ॥१२॥
 
ऐसी विनंति करुनी । पुनरपि विनवी करुणावचनीं ।
सेवा करितो द्वारयवनीं । महाशूरक्रूर असे ॥१३॥
 
प्रतिसंवत्सरीं ब्राह्मणासी । घात करितो जीवेसीं ।
याचि कारणें आम्हांसी । बोलावीतसे मज आजि ॥१४॥
 
जातां तया जवळी आपण । निश्चयें घेईल माझा प्राण ।
भेटी जाहली तुमचे चरण । मरण कैंचें आपणासी ॥१५॥
 
संतोषोनि श्रीगुरुमूर्ति । अभयंकर आपुले हातीं ।
विप्रमस्तकीं ठेविती । चिंता न करीं म्हणोनियां ॥१६॥
 
भय सांडूनि तुवां जावें । क्रूर यवना भेटावें ।
संतोषोनि प्रियभावें । पुनरपि पाठवील आम्हांपाशीं ॥१७॥
 
जंववरी तूं परतोनि येसी । असों आम्ही भरंवसीं ।
तुवां आलिया संतोषीं । जाऊं आम्ही येथोनि ॥१८॥
 
निजभक्त आमुचा तूं होसी । पारंपर-वंशोवंशीं ।
अखिलाभीष्‍ट तूं पावसी । वाढेल संतति तुझी बहुत ॥१९॥
 
तुझे वंशपारंपरीं । सुखें नांदती पुत्रपौत्रीं ।
अखंड लक्ष्मी तयां घरीं । निरोगी होती शतायुषी ॥२०॥
 
ऐसा वर लाधोन । निघे सायंदेव ब्राह्मण ।
जेथें होता तो यवन । गेला त्वरित तयाजवळी ॥२१॥
 
कालांतक यम जैसा । यवन दुष्‍ट परियेसा ।
ब्राह्मणातें पाहतां कैसा । ज्वालारुप होता जाहला ॥२२॥
 
विमुख होऊनि गृहांत । गेला यवन कोपत ।
विप्र जाहला भयचकित । मनीं श्रीगुरुसी ध्यातसे ॥२३॥।
 
कोप आलिया ओळंबयासी । केवीं स्पर्शे अग्नीसी ।
श्रीगुरुकृपा होय ज्यासी । काय करील क्रूर दुष्‍ट ॥२४॥
 
गरुडाचिया पिलियांसी । सर्प तो कवणेपरी ग्रासी ।
तैसें तया ब्राह्मणासी । असे कृपा श्रीगुरुची ॥२५॥
 
कां एखादे सिंहासी । ऐरावत केवीं ग्रासी ।
श्रीगुरुकृपा होय ज्यासी । कलिकाळाचें भय नाहीं ॥२६॥
 
ज्याचे ह्रुदयीं श्रीगुरुस्मरण । त्यासी कैंचें भय दारुण ।
काळमृत्यु न बाधे जाण । अपमृत्यु काय करी ॥२७॥
 
ज्यासि नाहीं मृत्यूचें भय । त्यासी यवन असे तो काय ।
श्रीगुरुकृपा ज्यासी होय । यमाचें मुख्य भय नाहीं ॥२८॥
 
ऐसेपरी तो यवन । अंतःपुरांत जाऊन ।
सुषुप्ति केली भ्रमित होऊन । शरीरस्मरण त्यासी नाहीं ॥२९॥
 
ह्रुदयज्वाळा होय त्यासी । जागृत होवोनि परियेसीं ।
प्राणांतक व्यथेसीं । कष्‍टतसे तये वेळीं ॥३०॥
 
स्मरण असें नसे कांहीं । म्हणे शस्त्रें मारितो घाई ।
छेदन करितो अवेव पाहीं । विप्र एक आपणासी ॥३१॥
 
स्मरण जाहलें तये वेळीं । धांवत गेला ब्राह्मणाजवळी ।
लोळतसे चरणकमळीं । म्हणे स्वामी तूंचि माझा ॥३२॥
 
येथें पाचारिलें कवणीं । जावें त्वरित परतोनि ।
वस्त्रें भूषणें देवोनि । निरोप देतो तये वेळीं ॥३३॥
 
संतोषोनि द्विजवर । आला ग्रामा वेगवक्त्र ।
गंगातीरीं असे वासर । श्रीगुरुचे चरणदर्शना ॥३४॥
 
देखोनियां श्रीगुरुसी । नमन करी तो भावेसीं ।
स्तोत्र करी बहुवसीं । सांगे वृत्तांत आद्यंत ॥३५॥
 
संतोषोनि श्रीगुरुमूर्ति । तया द्विजा आश्वासिती ।
दक्षिण देशा जाऊं म्हणती । स्थान-स्थान तीर्थयात्रे ॥३६॥
 
ऐकोनि श्रीगुरूचें वचन । विनवीतसे कर जोडून ।
न विसंबें आतां तुमचे चरण । आपण येईन समागमें ॥३७॥
 
तुमचे चरणाविणें देखा । राहों न शके क्षण एका ।
संसारसागरतारका । तूंचि देखा कृपासिंधु ॥३८॥
 
उद्धरावया सगरांसी । गंगा आणिली भूमीसी ।
तैसें स्वामीं आम्हांसी । दर्शन दिधलें आपुलें ॥३९॥
 
भक्तवत्सल तुझी ख्याति । आम्हां सोडणें काय निति ।
सवें येऊं निश्चितीं । म्हणोनि चरणीं लागला ॥४०॥
 
येणेंपरी श्रीगुरुसी । विनवी विप्र भावेसीं ।
संतोषोनि विनयेसीं । श्रीगुरु म्हणती तये वेळीं ॥४१॥
 
कारण असे आम्हां जाणें । तीर्थे असती दक्षिणे ।
पुनरपि तुम्हां दर्शन देणें । संवत्सरीं पंचदशीं ॥४२॥
 
आम्ही तुमचे गांवासमीपत । वास करुं हें निश्चित ।
कलत्र पुत्र इष्‍ट भ्रात । मिळोनि भेटा तुम्ही आम्हां ॥४३॥
 
न करा चिंता असाल सुखें । सकळ अरिष्‍टें गेलीं दुःखें ।
म्हणोनि हस्त ठेविती मस्तकें । भाक देती तये वेळीं ॥४४॥
 
ऐसेपरी संतोषोनि । श्रीगुरु निघाले तेथोनि ।
जेथें असे आरोग्यभवानी । वैजनाथ महाक्षेत्र ॥४५॥
 
समस्त शिष्यांसमवेत । श्रीगुरु आले तीर्थे पहात ।
प्रख्यात असे वैजनाथ । तेथें राहिले गुप्तरुपें ॥४६॥
 
नामधारक विनवी सिद्धासी । काय कारण गुप्त व्हावयासी।
होते शिष्य बहुवसी । त्यांसी कोठें ठेविलें ॥४७॥
 
गंगाधराचा नंदनु । सांगे गुरुचरित्र कामधेनु ।
सिद्धमुनि विस्तारुन । सांगे नामकरणीस ॥४८॥
 
पुढील कथेचा विस्तारु । सांगतां विचित्र अपारु ।
मन करुनि एकाग्रु । ऐका श्रोते सकळिक हो ॥४९॥
 
इति श्रीगुरुचरित्रामृते परमकथाकल्पतरौ श्रीनृसिंहसरस्वत्युपाख्याने सिद्ध-नामधारकसंवादे क्रूरयवनशासनं-सायंदेववरप्रदानं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥१४॥
 
॥ श्रीगुरुदेव दत्त ॥ ॥ ओंवीसंख्या ४९ ॥
 
श्रीगुरुदत्तात्रेयार्पणमस्तु

 

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Gurucharitra Adhyay 14 pdf: प्रिय पाठकों, यहां हम आप सभी के लिए  gurucharitra adhyay 14 in Marathi pdf लाए हैं। गुरु चरित्र अध्याय 14 को महरासत्रा में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है और बहुत ज्यादा पढ़ा जाता हे । gurucharitra adhyay 14 गुरु श्री नरसिम्हा सरस्वती के जीवन से प्रेरित और उन पर आधारित है।

गुरुचरित्र अध्याय 14 में श्री नरसिम्हा सरस्वती से संबंधित ]दर्शन और कहानियां शामिल हैं। कलियुग में श्रीपाद श्री वल्लभ के बाद श्री नरसिम्हा सरस्वती दत्तात्रेय के दूसरे अवतार हैं। यदि आप gurucharitra adhyay 14 pdf ढूंढ रहे हैं, तो आप इसे यहां से बड़ी आसानी से download कर सकते हे।

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What is the meaning of Gurucharitra Adhyay 14?

Gurucharitra adhyay 14 में बताया गया हे की कैसे गुरु नृसिंह सरस्वती ने कैसे अपने अनुनायी सन्यदेव को एक बहुत बुरी श्थिति से बचाया। और यह शिक्षा दी की जीवन में आने वाली हर कठिनाई को दूर किया जा सकता हे और कैसे जीवन में सुख और शांति बनाई जा सकती हे।

Who is Namdharak in Gurucharitra?

Gurucharitra की शुरुआत एक कहानी से होती हे जिसका मुख्य पात्र नामधारक नामक एक आदमी होता हे जिसको एक साधारण आदमी के रूप में दिखाया गया और कैसे वह इस संसार के बोझ से दबा हुआ हे।  

How many chapters are in Gurucharitra?

There are total 52 chapters in Gurucharitra.यह नामधारक और उनके आध्यात्मिक गुरु श्री सिद्ध मुनि के बीच बातचीत के रूप में लिखा गया है।

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